हिन्दु
धर्म सामाजिक न्यायको चरितार्थ करनेका मिशन हाथमें लेगा ऐसी अपेक्षा निरर्थक है।
यह कार्य इस्लाम, ख्रिस्ती धर्म या फिर बौद्ध धर्म कर सकता है। हिन्दु धर्म स्वंय
अस्पृश्योंके खिलाफ अन्याय और असमानताका मूर्तिमंत स्वरुप है। इसके लिये न्यायके
सिद्धांतोका उपदेश देना यह उसके अपने अस्तित्वके विरुद्ध जानेके बराबर है।
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